ये सवाल अक्सर पुछा जाता है की जब सुन्नत 11 रकअत है तो फिर
हरमैन शरिफैन में 20 रकअत क्यों?
इस सवाल के जवाब के लिए हमे कुछ पीछे जाकर तारीखी पसमंज़र को जानना होगा।
आज से तक़रीबन 100 साल कब्ल तक खाना ए काबा
में चार मुसल्ले हुआ करते थे यानी
चारों तरफ चार मज़हब हनफी शाफी मालिकी हम्बली के मुसल्ले थे और मुस्लिम इत्तेहाद का
जनाज़ा निकला हुआ था, जब शाफी नमाज़ पढ़ते तो बाकी बैठे रहते, जब मालिकी नमाज़ पढ़ते
तो बाकी 3
इंतज़ार करते यानी कोई किसी
के पीछे नमाज़ अदा नहीं करता था।
आले सऊद की हुकूमत आते ही मुसलमानों के मरकज़ से, इस तकलीफ़ देह सूरते हाल का खातमा
किया गया और उसकी मरकज़ीयत बहाल करते हुए 4 मुसल्लों की रस्म को ख़त्म कर दिया, और सिर्फ एक मुसल्लाह जो सिर्फ कुरान व हदीस की तरफ मंसूब था उसे वहां क़ायम
कर दिया। तमाम मुसलमानों को एक वक़्त, एक जमात और एक इमाम पर इकट्ठा कर दिया, यूँ पूरी दुनिया ने इस्लाम और मुसलमानों की मरकज़ियत और यकजहती
को अपनी आँखों से देखा।
रहा यह सवाल की अगर किताब व सुन्नत में क़यामुल्लैल की तादात 11 रकत है और अहले सऊदी अरब भी 11 रकत के क़ायल हैं, तो हरमैन शरीफ़ैन मे 20 रकत नमाज़ ए तरावीह क्यों अदा की जाती है? क्या ये खुला तज़ाद
(टकराव) नहीं है?
जब ऐसे तारीक दौर के बाद सबसे पहले रमज़ान में सुन्नत ए नबवी सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम के मुताबिक 11 रकअत तरावीह पढ़ाई गई, तो 20 रकअत पढ़ने वालों ने शोर मचा दिया। की अगर आप हमें 20 नहीं पढ़ने देंगे तो हमें बाकी 12 रकअत अपने इमाम के पीछे पढ़ने दी जाए। सऊदी हुकूमत ने सोचा अगर इन्हें अपना इमाम खड़ा करने की इजाज़त दे दी जाए, तो फिर हर फिरका यही मुतालबा करेगा और फिर से वही चारो मुसल्ले वापिस बिछ जायेंगे और इत्तेहाद का असल मकसद फ़ौत हों जाएगा।
लिहाज़ा हुकूमत ने इंतेज़ामी अम्र के पेशे नज़र दो इमामों को मुक़र्र किया और इसका हल ये सोचा गया की एक कारी 10 रकअत पढ़ा कर चला जाए और जिसको मसनून तादाद की अदायगी करनी हो वह भी अपना क़याम इस पहले इमाम के साथ पूरा कर ले 11 रकअत पढ़ने वाले उसके साथ हट कर 1 रकात वित्र पढ़ कर अपनी 11 मुकम्मल कर ले।
इधर दूसरा इमाम 10 रकअत अलग से और पढ़ाये
और 20 पढ़ने वाले दोनों इमामो की इक्तेदा में अपनी 20 पूरी कर ले और यूँ इंतेज़ामी नुक्ता ए नज़र से हरमैन मे 20 रकत तरावीह दो इमामों के साथ अदा करने का सिलसिला चल निकला।
इस तरीक़े से क़यामुल्लैल की मसनून तादाद भी एक इमाम पूरी पढ़ाता है और वह
वापस जाकर अपनी वित्र अलग पढ़ लेता है। इस तरह सुन्नते नबवी सल्लाहो अलैहे वासल्लम
पर भी अमल हो जाता है और टकराव की सूरत पैदा नहीं हो पाती। वरना वहां भी 11 रकाअते ही पढ़ाई जाती है। दूसरे इमाम के आने से
तादाद नहीं बढ़ती बल्कि बाहर से आने वाले हाजियो और दीगर लोगो को 2 जमाते होने से सहूलियत हो जाती है। वरना मक्का
की दूसरी मस्जिदों में 11 रकअत ही पढ़ी जाती
है।
एक बात और है सिर्फ 20 ही का अगर दावा
है तो एक चीज़ और भी है की अमीन बिल जहर, फातेहा खुल्फुल
इमाम, रफयादैन, तावरुक सब भी
होता है । इस पर चुप्पी क्यों? आइए आपको बताते हैं
कि कितने अमल ऐसे है जो मक्का मदीना के हैं और उस पर हमारे हनफी भाईयों का अमल नहीं
है और वे लोगों को भी ये अमल करने से रोकते हैं।
1) मक्का मदीना में नमाज़ अव्वल वक़्त अदा की जाती है। आप लोग नहीं
करते है।
2) मक्का मदीना में नमाज़े मगिरब से पहले दो रकअत नफ्ल नमाज़ अदा
की जाती है। आप लोग नही करते हो न करने का टाइम देते हो।
3) मक्का मदीना में अज़ान के कलिमात दो-दो बार और तकबीर के कलिमात
एक-एक बार कहे जाते है। आपके यहां अज़ान और तकबीर के कलिमात बराबर होते है।
4) मक्का मदीना मे सीने पर हाथ बांधा जाता है। आपके यहां नाफ के
नीचे बांधते हैं।
5) मक्का मदीना में मुक्तदी जहरी नमाज़ों मे भी इमाम के पीछ सूरह
फातिहा पढ़ते है। आपके यहां सिर्री नमाज़ो तक में नहीं पढ़ते।
6) मक्का मदीना में आमीन बुलन्द आवाज़ से कही जाती है। आप लोग मना
करते हो।
7) मक्का मदीना में रूकू को जाते और उठते वक़्त और दो रकआत पढ़
कर तीसरी रकआत के लिए उठते वक़्त रफायदैन किया जाता है। आप नहीं करते और करने वाले
को रोकते है।
8) मक्का मदीना में औरतों को आम मसिजदों में नमाज़ बाजमाअत से अदा
करने के लिए आने की इजाज़त है। आपके यहां मना है और जहां आती वहां की आप हंसी उड़ाते
है और रोकने की कोशिश करते हैं।
9) मक्का मदीना में औरतें र्इद उल फितर व ईद इल अज़हा की नमाज़
जमाअत के साथ अदा करती है। आपके यहां र्इदगाह में नमाज़ के बाद घूमने तो जा सकती है
लेकिन साथ में नमाज़ अदा नहीं कर सकती।
10) मक्का मदीना में र्इदैन की नमाज़ों में बारह ज़ार्इद तकबीरों
का एहतमाम होता है। आपके यहां सिर्फ 6 तकबीरे होती है।
11) मक्का मदीना में नमाज़े जनाज़ा मसिजद में अदा की जाती है। आपके
यहाँ मस्जिद से बाहर।
12) मक्का मदीना में नमाज़े जनाज़ा में सूरह फातिहा पढ़ी जाती है।
आपके यहां नहीं पढ़ी जाती।
13) मक्का मदीना में रोज़े की नीयत ज़बान से नहीं कही जाती। आपके
यहां जन्त्री पर लिखी जाती है और कर्इ मस्जिदों से ऐलान होता है पढ़ने के लिए।
14) मक्का मदीना में अज़ान से पहले सलात व सलाम नहीं पढ़ा जाता।
आपके यहां पढ़ते है।
15) मक्का मदीना में नमाज़ पहले ज़बान से नीयत नहीं कही जाती। आप
लोग कहते हो और सिखाते हो।
16) मक्का मदीना में फर्ज़ नमाज़ों के बाद इज्तेमार्इ दुआ नहीं होती
है। आप लोग करते हो।
17) मक्का मदीना में नमाज़ र्इद से पहले तकरीर या खुत्बा नहीं होता।
आपके यहां होता है।
18) मक्का मदीना में नमाज़े जनाज़ा में सना नहीं पढ़ी जाती। आप लोग
पढ़ते हो।
19) मक्का मदीना में नमाज़े वित्र की आखरी रकआत में किराअत के बाद
रफायदैन नहीं किया जाता। आप लोग करते हो।
20) मक्का मदीना में वित्र को ताक़ अदद में अदा किया जाता है
जैसे 3, 5, 7, । आपके यहां 3 के अलावा तादाद वित्र में जायज़ नहीं।
अगर बीस रकअत तरावीह पर मक्का मदीना का अमल अहनाफ के यहां दलील है। तो मक्का मदीना
के बाकी अमलों को भी क़ुबूल करना चाहिए। इसे सिर्फ बीस रकत तरावीह तक ही क्यों महदूद कर
दिया गया? बाकी मसअलों में उसको दलील
क्यों नहीं बनाया जाता? कहीं यह बाज़ पर र्इमान
लाना और बाज़ का इनकार वाला मामला तो नहीं। और अगर अहनाफ उसको अहले हदीस पर दलील बनाकर
पेश करते हैं तो उनको यह जान लेना चाहिए कि अहले हदीस के यहां भी दलार्इल सिर्फ वही
है जो सलफ सालेहीन के यहां दलील थे।
अल्लाह दिलों की तंगी दूर करे और हिदायत दे । आमीन ।
वल्लाहु आलम बिस सवाब